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ए॒षा स्या नो॑ दुहि॒ता दि॑वो॒जाः क्षि॒तीरु॒च्छन्ती॒ मानु॑षीरजीगः। या भा॒नुना॒ रुश॑ता रा॒म्यास्वज्ञा॑यि ति॒रस्तम॑सश्चिद॒क्तून् ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

eṣā syā no duhitā divojāḥ kṣitīr ucchantī mānuṣīr ajīgaḥ | yā bhānunā ruśatā rāmyāsv ajñāyi tiras tamasaś cid aktūn ||

पद पाठ

ए॒षा। स्या। नः॒। दु॒हि॒ता। दि॒वः॒ऽजाः। क्षि॒तीः। उ॒च्छन्ती॑। मानु॑षीः। अ॒जी॒ग॒रिति॑। या। भा॒नुना॑। रुश॑ता। रा॒म्यासु॑। अज्ञा॑यि। ति॒रः। तम॑सः। चि॒त्। अ॒क्तून् ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:65» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:6» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब छः ऋचावाले पैसठवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में फिर वह स्त्री कैसी हो, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्वीकार करने योग्य ! (या) जो (रुशता) रूप से (भानुना) किरण के साथ वर्त्तमान (राम्यासु) रात्रियों में (अज्ञायि) जानी जाय (तमसः) अन्धकार से (चित्) भी (अक्तून्) रात्रियों को (तिरः) तिरस्कार करती तथा (मानुषीः) मनुष्यसम्बन्धी प्रजाओं को (क्षितीः) और पृथिवियों को (उच्छन्ती) विशेष निवास कराती हुई (दिवोजाः) सूर्य से उत्पन्न हुई उषा के समान (अजीगः) जगाती है (नः) हमारी (एषा) सो (स्या) यह (दुहिता) कन्या है, तुम ग्रहण करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो कन्या उषा के तुल्य वा बिजुली के तुल्य अच्छे प्रकाश को प्राप्त, विद्या-विनय और हाव-भाव, कटाक्षों से पति आदि को आनन्दित करती है वा जैसे सूर्य्य रात्रि को दूर कर सब प्रजा को प्रकाशित करता है, वैसे घर से अविद्या और अन्धकार निवार विद्या से सब को प्रकाशित करती है, वही उत्तम स्त्री होती है ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्सा कीदृशी भवेदित्याह ॥

अन्वय:

हे वरणीय ! या रुशता भानुना सह वर्त्तमाना राम्यास्वज्ञायि तमसश्चिदक्तूँस्तिरस्करोति मानुषीः क्षितीरुच्छन्ती दिवोजा उषा इवाऽजीगो न एषा स्या दुहितास्ति त्वं गृहाण ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एषा) (स्या) सा (नः) अस्माकम् (दुहिता) (दिवोजाः) सूर्याज्जातेव (क्षितीः) पृथिवीः (उच्छन्ती) विवासयन्ती (मानुषीः) मनुष्याणामिमाः प्रजाः (अजीगः) जागरयति (या) (भानुना) किरणेन (रुशता) रूपेण (राम्यासु) रात्रिषु। राम्येति रात्रिनाम। (निघं०१.७) (अज्ञायि) ज्ञायते (तिरः) तिरश्चीने (तमसः) अन्धकारात् (चित्) (अक्तून्) रात्रीः ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। या कन्या उषर्वद्विद्युद्वत्सुप्रकाशिता विद्याविनयहावभावैः पत्यादीनानन्दयति सूर्यो रात्रिं निवार्य्य सर्वाः प्रजाः प्रकाशयतीव गृहादविद्याऽन्धकारं निवार्य्य विद्यया सर्वान् प्रकाशयति सैव स्त्री वरा भवति ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात उषेप्रमाणे स्त्रीच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी कन्या उषेप्रमाणे, विद्युतप्रमाणे चांगला प्रकाश देते. विद्या, विनय, हावभाव व कटाक्ष इत्यादींनी पतीला आनंदित करते व जसा सूर्य रात्रीला दूर करून सर्व प्रजेला प्रकाशित करतो. तसे घरातील अविद्या अंधकार नष्ट करून विद्येने प्रकाशित करते तीच स्त्री उत्तम असते. ॥ १ ॥